Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 37

यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपसम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥37॥

यत्-जो; तत्-वह; अग्रे–आरम्भ में; विषम्-इव-विष के समान; परिणामे-अन्त में; अमृत-उपमम्-अमृत के समान; तत्-वह; सुखम्-सुख; सात्त्विकम्-सत्वगुणी; प्रोक्तम्-कहा जाता है; आत्म-बुद्धि-आत्म ज्ञान में स्थित; प्रसाद-जम्-शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न।

Translation

BG 18.37: जो आरम्भ में विष के समान लगता है लेकिन अंत में जिसका स्वाद अमृत के समान हो जाता है उसे सात्विक सुख कहते हैं। यह शुद्ध बुद्धि से उत्पन्न होता है जो आत्म ज्ञान में स्थित होती है।

Commentary

भारतीय फल आंवला उत्तम आहारों में से एक है जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। इसमें दस संतरों से भी अधिक विटामिन-सी होता है। लेकिन बच्चे इसे नापसंद करते हैं क्योंकि इसका स्वाद कड़वा होता है। उत्तर भारत में माता-पिता बच्चों को इसका सेवन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और एक ऐसी कहावत भी है-“आंवले का खाया और बड़ों का कहा, बाद में पता चलता है।" अर्थात “आंवले का सेवन और बड़ों का परामर्श" इन दोनों का लाभ भविष्य में ज्ञात होता है। वास्तव में आंवला खाने के कुछ क्षणों के पश्चात उसका कड़वापन समाप्त हो जाता है और मिठास का अनुभव होता है। प्राकृतिक रूप से विटामिन-सी का सेवन करने से निःसंदेह दीर्घ काल तक लाभ प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सात्विक सुख भी इसी प्रकृति का होता है जो अल्पकाल के लिए दुःख के रूप में कड़वा लगता है और अंत में सुख के रूप में इसका स्वाद अमृत बन जाता है। वेदों में सात्विक सुखों का 'श्रेय' के रूप में उल्लेख किया गया है जोकि वर्तमान में दुखद और अंततः लाभकारी होता है। इसके विपरीत 'प्रेय' है जो आरम्भ में सुखद लेकिन अंततः हानिकारक होता है। 'श्रेय' और 'प्रेय' के संबंध में कठोपनिषद् में वर्णन है

अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्थे पुरुषम् सिनीतः। 

तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते 

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। 

श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते

(कठोपनिषद्-1.2.1-2)

 "दो प्रकार के मार्ग होते हैं-एक लाभप्रद और दूसरा सुखद। ये दोनों मनुष्य को विभिन्न दिशा की ओर ले जाते हैं। सुखद प्रारम्भ में आनन्द प्रदान करता है लेकिन इसका अंत पीड़ादायक होता है। अज्ञानी लोग सुख और विनाश के पाश में बंधते हैं लेकिन बुद्धिमान आकर्षण के धोखे में नहीं आते और लाभप्रद का चयन करते हैं और अंततः सुख प्राप्त करते हैं।

Swami Mukundananda

18. मोक्ष संन्यास योग

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